संतुलित जीवनशैली से शरद ऋतु में रोग मुक्ति
शरद ऋतु तन-मन को संतुलित करने वाली मानी गई है। लेकिन इन दिनों सूर्य की प्रखर किरणें विशेष रूप से पित्त दोष की वृद्धि करती हैं। इसके कारण सामान्यतया सितंबर से नवंबर तक की इस समयावधि में पीलिया, रक्तदोष संबंधी अन्य विकार और अपच की समस्या भी बढ़ने लगती है। पित्त नियंत्रित करने के लिए जलपान व विरेचन आदि शोधन लाभकारी होते हैं। वहीं इस ऋतु में आहार, दिनचर्या और जीवनशैली का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
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Sanjay Purohit
Created AT: 13 अक्टूबर 2025
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वर्षा ऋतु के उपरांत शरद ऋतु के आगमन से आकाश स्वच्छ हो जाता है और सूर्य की किरणें प्रखर होने लगती हैं। इससे प्रकृति का स्वरूप बदल जाता है। नदियों और तालाबों का जल निर्मल हो जाता है। भूमि पर छायी हरियाली और भी मनभावन लगती है। पूरे वातावरण में एक विशेष तरह की निर्मलता का संचार होता है। यह ऋतु मन और शरीर दोनों को संतुलित करने वाली मानी गई है। भारतीय सांस्कृतिक जीवन में नवरात्र, दुर्गा पूजा, दशहरा और दीपावली व शरद पूर्णिमा जैसे प्रमुख पर्व इस काल में आने से शरद ऋतु का अलग ही महत्व है। यह काल आनंद, पवित्रता और उल्लास का संदेश देता हैं। शरद ऋतु के पश्चात शीत काल का आगमन होता है। इस ऋतु के अन्त में सर्दी के मौसम की शुरुआत होती है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से शरद ऋतु

वर्षा ऋतु में शरीर में संचित दोष शरद ऋतु में प्रकट होने लगते हैं। सूर्य की प्रखर किरणें विशेष रूप से पित्त दोष की वृद्धि करते हैं, जिसके कारण पित्तजन्य रोग अधिक देखने को मिलते हैं। इस समय पीलिया, अम्लपित्त और अन्यपित्त वृद्धि संबंधी विकार सामान्य हो जाते हैं। त्वचा संबंधी रोग जैसे रिंगवोर्म, खाज, खुजली, फोड़े-फुंसी और मुंह व जीभ पर छाले भी इस ऋतु में बढ़ जाते हैं। इसलिए शरद ऋतु में आहार, दिनचर्या और जीवनशैली का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

आहार की भूमिका

इस ऋतु में आहार विशेष रूप से पित्तशमन और शरीर के संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है। इस समय मधुर, शीतल और हल्के आहार का सेवन करना चाहिए। तिक्त द्रव्य जैसे नीम, करेला, परवल आदि पित्तशमन में सहायक होते हैं। अनाजों में जौ, गेहूं, चावल और दालों में मूंग जैसी दालें शरीर को पोषण और ऊर्जा प्रदान करती हैं। फल जैसे अनार, अंगूर मौसमी विशेष रूप से हितकारी माने गए हैं।


गुणकारी निर्मल जल

इस ऋतु का जल विशेष गुणकारी होता है। अगर शरद ऋतु में आकाश से जल बरसता है तो जल तनु, स्वच्छ, पचने में हल्का होता है। इन दिनों का पानी कफ भी नहीं बढ़ाता है। सूर्य की किरणों और चंद्रमा की शीतलता से परिपक्व होकर यह जल निर्मल और जीवनदायी बनता है। इसे पाचन क्रिया और स्नान के लिए श्रेष्ठ माना गया है। आयुर्वेद में इसे अमृत के समान लाभकारी कहा गया है।

शरद ऋतु संबंधी महत्वपूर्ण बातें

ग्रीष्म और वसन्त ऋतु की ही तरह शरद ऋतु में भी दही का सेवन आयुर्वेद में निषिद्ध है। इन दिनों जड़ी-बूटियों को औषधि निर्माण के लिए एकत्रित करना होता है। उनके प्रयोज्य अंग विशिष्ट ऋतु में अपने गुणों के उत्कृष्ट भाव से युक्त होते हैं। शरद ऋतु में पौधों की छाल, कंद और क्षीर अपने चरम औषधीय गुणों पर होते हैं जो विभिन्न रोगों के उपचार में प्रभावशाली होते हैं। इसलिए इनको इस समय एकत्रित करना चाहिए। यह भी खास तौर पर जेहन में रखने काबिल बात है कि सभी ऋतुओं में अधिक मात्रा में जल न पीने का निर्देश है लेकिन ग्रीष्म और शरद दो ऐसी ऋतुएं हैं जिसमें इच्छा अनुसार जल पिया जा सकता है। यह ऋतु न केवल आनंद और उत्सव का प्रतीक है बल्कि स्वास्थ्य और आयुर्वेदिक साधना का स्वर्णिम अवसर भी है।


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संतुलित जीवनशैली से शरद ऋतु में रोग मुक्ति
शरद ऋतु तन-मन को संतुलित करने वाली मानी गई है। लेकिन इन दिनों सूर्य की प्रखर किरणें विशेष रूप से पित्त दोष की वृद्धि करती हैं। इसके कारण सामान्यतया सितंबर से नवंबर तक की इस समयावधि में पीलिया, रक्तदोष संबंधी अन्य विकार और अपच की समस्या भी बढ़ने लगती है। पित्त नियंत्रित करने के लिए जलपान व विरेचन आदि शोधन लाभकारी होते हैं। वहीं इस ऋतु में आहार, दिनचर्या और जीवनशैली का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
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